नीमच ।संसार में रहते हुए व्यक्ति जीव दया का पालन करता है। तो उसे अज्ञानता वश अनेक पाप कर्म भी हो जाते हैं उन पाप कर्मों के क्षय के लिए संयम दीक्षा नियम का पालन आवश्यक होता है।संयम पालन बिना पाप कर्मों का क्षय नहीं होता है।यह बात जैन श्वेतांबर भीड़भंजन पार्श्वनाथ मंदिर ट्रस्ट संघ नीमच के तत्वावधान में बंधू बेलडी पूज्य आचार्य जिनचंद्र सागरजी मसा के शिष्य रत्न नूतन आचार्य प्रसन्नचंद्र सागरजी मसा ने कही। वे चातुर्मास के उपलक्ष्य में मिडिल स्कूल मैदान के समीप जैन भवन में आयोजित धर्मसभा में बोल रहे थे।
उन्होंने कहा कि क्रोध पर नियंत्रण किए बिना संयम जीवन का पालन सफल नहीं होता है इसलिए सदैव क्रोध त्याग नियम का पालन करना चाहिए। कर्मों की निर्जरा के लिए परिसय को सहन कर स्वागत करेंगे तो कष्ट दुख कम होगा। साधु सोचे तो हर पल परिसय सहनशील बन सकता है। स्वीकृति है वहां सहनशीलता रहती है। स्वीकृति नहीं है तो प्रतिकार होता है विपरीत परिस्थिति में भी उपसर्ग को सहन करेंगे तो जीवन में आनंद आएगा।साधु कभी भी दीक्षा लेने के बाद दुखी नहीं होते ।सदैव आनंद का जीवन जीते हैं। साधु संतों के माता-पिता आ भी जाए तो वे प्रसन नहीं होते हैं। समान समता भाव में रहते हैं।
अगले जन्म में इसी प्रकार अच्छा परिवार मिले इस प्रकार की प्रार्थना करते हैं तो कर्मों का क्षय नहीं होता है। संत को उपकारों पर राग नहीं रखना चाहिए। साधु संत आहार पर संयम रखें तो उनके शरीर पर नियंत्रण रहेगा मन विचार नहीं बिगड़ेंगे। संयम जीवन का पालन पवित्रता के साथ पूरा हो सकता है। साधु यदि कोई गलती कर नीचे गिर जाता है तो श्रावक श्राविकाओं का कर्तव्य है उन्हें उठाएं वापस आगे बढ़ाएं।सच्चे महान पुरुषों साधु संतों के पवित्र उपदेश मिले तो नास्तिक व्यक्ति भी महान संत बनाकर आचार्य के पद तक की यात्रा तय कर सकता है।
संघ अध्यक्ष अनिल नागौरी ने बताया किधर्मसभा में तपस्वी मुनिराज पावनचंद्र सागरजी मसा एवं पूज्य साध्वीजी चंद्रकला श्रीजी मसा की शिष्या भद्रपूर्णा श्रीजी मसा आदि ठाणा 4 का भी चातुर्मासिक सानिध्य मिला।पूज्य आचार्य भगवंत का आचार्य पदवी के बाद प्रथम चातुर्मास नीमच में हो रहा है। उपवास, एकासना, बियासना, आयम्बिल, तेला, आदि तपस्या के ठाठ लग रहे है। धर्मसभा में जावद ,जीरन, मनासा, नयागांव, जमुनिया,जावी, आदि क्षेत्रों से श्रद्धालु भक्त सहभागी बने।धर्मसभा का संचालन सचिव मनीष कोठारी ने किया।